- लगभग 20 लाख दीपों से जगमगाई महादेव की नगरी काशी
- लेजर शो के अद्भुत प्रयोग से रंग विरंगा हो गया आकाश
- काशी के घाटों पर देवों के स्वागत के लिए नभ उतरीं तारिकाएं
- सीएम योगी ने दीपक जलाकर किया देव दीपावली का शुभारंभ
अभयानंद शुक्ल,वीकली आई न्यूज़
वाराणसी/लखनऊ। देव दीपावली के लिए विश्व प्रसिद्ध शिव नगरी काशी बुधवार को अलौकिक छटा बिखेर रही थी। दिनभर की तैयारी के बाद जब काशी के मंदिरों, घाटों, सरोवरों और घरों पर जब दीप जले तो ऐसा लगा कि जैसे पूरा स्वर्ग लोक उत्तर आया हो। उस लेजर शो का अद्भुत आयोजन मन मोह लेने वाला था त्रिपुरासुर के संहार के बाद खुशी मनाने के लिए देवताओं द्वारा मनाई जाने वाली यह देव दीपावली अनोखी है। सीएम योगी द्वारा दीपक जलाते ही एक एक करके सारे दीप जला दिए गए और पूरा गंगा घाट असंख्य दीयों से जगमग हो उठा।
इसके पहले सीएम योगी आदित्यनाथ ने विधिवत् गंगा पूजन भी किया। आस्था और सौंदर्य के इस शाश्वत मिलन को देखने वाली हर आत्मा मंत्रमुग्ध हो उठी। काशी विश्वनाथ के इस पवित्र धाम में मां गंगा के पावन तट व सभी 88 गंगा घाटों पर देव दीपावली का दिव्य आयोजन किया गया। इसे देखने के लिए जन सैलाब उमड़ पड़ा।
दीपों के जगमगाहट में गंगा घाट का विहंगम दृश्य देखते ही बन रहा था। ऐसा लग रहा था कि नभ मंडल से असंख्य तारिकाएं काशी के घाट पर देवताओं के स्वागत के लिए उत्तर आई हों। ये त्यौहार भगवान शिव की त्रिपुरासुर पर विजय की याद में मनाई जाती है। मान्यता है कि इस दिन भगवान शिव ने ब्रह्मांड की रक्षा की थी और उसी खुशी में कार्तिक पूर्णिमा के दिन सभी देवता काशी में प्रकट हुए थे और गंगा घाट पर दीपावली मनाया था। मुख्यमंत्री योगी ने इसके बाद नमो घाट से क्रूज से काशी के गंगा घाटों पर इसका विहंगम दृश्य तथा शिवाला घाट पर गंगा के जल लहरियों पर लेज़र शो का अवलोकन किया। इस मौके पर ग्रीन घाट पर आतिशबाजी भी हुई। योगी के साथ प्रदेश के पर्यटन एवं संस्कृति मंत्री जयवीर सिंह, स्टांप एवं न्यायालय पंजीयन शुल्क राज्य मंत्री (स्वतंत्र प्रभार) रविन्द्र जायसवाल, महापौर अशोक तिवारी, पूर्व मंत्री एवं विधायक डॉ नीलकंठ तिवारी समेत अधिकारी भी मौजूद रहे। दिवाली के पंद्रह दिन बाद, कार्तिक पूर्णिमा को मनाए जाने वाले इस त्योहार में, पूरा नदी तट लाखों मिट्टी के दीपों से जगमगा उठता है, जो एक ऐसा नज़ारा प्रस्तुत करता है जो कालातीत लगता है।
इस समय यह उत्सव किसी अद्भुत अनुभव से कम नहीं है। असंख्य दीप घाटों, मंदिरों, छतों पर और यहां तक कि गंगा नदी पर भी तैरते हैं, जिससे इसकी अर्ध चंद्राकार परिक्रमा प्रकाश की झिलमिलाती आकाशगंगा में बदल जाती है। परंपरा अनुसार, इंदौर की रानी अहिल्याबाई होलकर ने 18वीं शताब्दी में इस प्रथा को पुनर्जीवित किया था, और पंचगंगा घाट पर एक हज़ार दीपों वाला एक विशाल स्तंभ बनवाया था। और वह आज भी हर साल सबसे पहले जलाया जाने वाला स्थान है। ये त्योहार आतिशबाजी, सजी हुई नावों, अग्नि-भक्षक और तैरते मंचों पर शास्त्रीय संगीत और नृत्य के सांस्कृतिक प्रदर्शनों से समृद्ध होता है। नमो घाट, दशाश्वमेध और शीतला घाटों पर, विशाल दीपों, कपूर की लौ, पुष्पांजलि के साथ भव्य गंगा आरती और दुग्धाभिषेक किया जाता है। शिवाला घाट पर गंगा की उठती जल तरंगों पर लेज़र शो ने प्राचीन वैभव में एक आधुनिक स्पर्श जोड़ा है। फिर भी यह त्यौहार केवल आनंद का ही प्रतीक नहीं है, बल्कि भारत के शहीदों के प्रति एक सच्ची श्रद्धांजलि भी है। थलसेना, वायुसेना, नौसेना, सीआरपीएफ और एनसीसी इकाइयों के सैनिक एक औपचारिक सलामी में भाग लेते हैं। इसके अलावा शहीदों के सम्मान में आकाशदीप जलाए जाते हैं। इस प्रकार देव दीपावली उत्सव और स्मरण दोनों का प्रतीक है, जो पौराणिक कथाओं, भक्ति और देशभक्ति को एक साथ पिरोती है। इस रात में वाराणसी नगरी सचमुच काशी बन जाती है, जहां लाखों दीप देवताओं के स्वागत का एक प्रकाशमय संदेश भेजते हैं।

पौराणिक कथा
यह त्योहार पौराणिक कथाओं और सदियों पुरानी परंपराओं में गहराई से निहित है। एक कथा भगवान शिव और राक्षस तारकासुर के तीन पुत्रों-विद्युन्माली, तारकाक्ष और कमलाक्ष-की कहानी कहती है। घोर तपस्या के फल के रूप में इन भाइयों ने भगवान ब्रह्मा से स्वर्ग, पृथ्वी और पाताल लोक में स्थित, सोने, चाँदी और लोहे से बने तीन किले प्राप्त किए। त्रिपुरा नामक ये किले, हज़ार साल में केवल एक बार ही दिखते थे। और इन्हें एक असंभव से दिखने वाले रथ से छोड़े गए एक ही बाण से, और वह भी केवल क्रोध से रहित रथ से ही नष्ट किया जा सकता था। इस वरदान के प्रभाव में, राक्षस फलते-फूलते रहे, जिससे देवता भयभीत हो गए। पहले तो न तो ब्रह्मा और न ही शिव ने हस्तक्षेप किया, क्योंकि दोनों भाई धर्म से रहते थे। लेकिन विष्णु की सलाह पर, एक दिव्य प्राणी द्वारा प्रचारित एक नए सिद्धांत के माध्यम से राक्षसों को आसानी से गुमराह किया गया, यहां तक कि नारद ऋषि को भी उनका धर्म परिवर्तन करा दिया गया। एक बार जब वे धर्म से भटक गए, तो शिव ने देवताओं की संयुक्त शक्तियों को अवशोषित कर लिया और एक असाधारण रथ बनाया। पृथ्वी उसका शरीर, मेरु पर्वत उसका धनुष, वासुकि नाग उसकी डोर और पाशुपत अस्त्र उसका एकमात्र बाण। रथ खींचने के लिए विष्णु ने एक शक्तिशाली बैल का रूप धारण किया। जब तीनों किले एक सीध में आ गए, तो शिव ने बाण छोड़ा और त्रिपुर को नष्ट कर दिया। मारे गए प्राणियों के प्रति उनके करुणा के आंसुओं से रुद्राक्ष का वृक्ष उग आया। बुराई पर अच्छाई की यह जीत देव दीपावली की पौराणिक जड़ों में से एक है।
इसके अलावा एक और कथा राजा दिवोदास (रिपुंजय) से संबंधित है। दैवीय शक्तियों से संपन्न, उन्होंने एक संधि के तहत काशी पर शासन किया। संधि के तहत शिव और अन्य देवताओं को भी नगर में प्रवेश करने की अनुमति नहीं थी। बाद में जब शिव जी ने माता पार्वती से विवाह किया, तो वे काशी में निवास करना चाहते थे, लेकिन इस संधि के कारण उन्हें ऐसा करने से रोक दिया गया। देवताओं ने दिवोदास में दोष ढूंढ़ने का प्रयास किया, योगिनियों, आदित्यों, भैरवों और यहाँ तक कि ब्राह्मण वेशधारी गणेश को भी भेजा। किसी को कोई दोष नहीं मिला, क्योंकि राजा न्यायप्रिय और धर्मात्मा थे। समय के साथ भगवान गणेश ने, मुख्य सलाहकार के रूप में दिवोदास को मन की शांति के लिए भोलेनाथ को वापस बुलाने के लिए धीरे से राजी किया। तब राजा ने मीर घाट के पास एक शिवलिंग की स्थापना की और शिवजी से वहां स्थायी रूप से निवास करने का अनुरोध किया। इससे अति प्रसन्न होकर सभी देवता काशी लौट आए और घाटों को दीपों से जगमगा दिया। बताया जाता है कि इसी दिव्य घर वापसी के पर्व के रूप में देव दीपावली का जन्म हुआ।
